छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का इतिहास । Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh 2023

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छत्तीसगढ़ की जांच में कर्मचारियों के प्रमुख स्थान रहा है जिन्होंने मध्यकाल में प्रदेश को स्थिरता पूर्वक शासन देकर प्रदेश की समृद्धि के लिए शासन-प्रशासन किया कलचुरी वंश मूल्य का त्रिपुरी के कलचुरी थे

जो कि प्रारंभ में रतनपुर के कलचुरी के नाम से शासित हुए और कालांतर में इनकी द्वितीयक शाखा रायपुर कलचुरी के नाम से शासित हुए रतनपुर में कलचुरी राजवंश की लाहोरी शाखा ने 10वीं शताब्दी में राज्य स्थापित किया जो जो कि 18वीं शताब्दी के मध्य तक कायम रहा

कलचुरी वंश का संस्थापक कौन था । कोक्कल कौन था

कलचुरी कालीन इतिहास कलचुरीयों की वंशावली किस नरेश से आरम्भ होती है, उसके बारे में अनुमान किया जाता है कि कोकल्लदेव से आरम्भ होती । कोकल्लदेव के वंशज कलचुरी कहलाये।

कलचुरी हैदयों की एक शाखा है। हैदयवंश ने रतनपुर और रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया ।

कोक्कल महाप्रतापी राजा थे, पर उनके वंशजों में जाजल्लदेव (प्रथम), रत्नदेव (द्वितीय) और पृथ्वीदेव (द्वितीय) के बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ महापराक्रमी राजा थे, बल्कि छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक उन्नति के लिए भी चेष्टा की थीं। Chhattisgarh Me Kalchuri Vansh

जाजल्लदेव (प्रथम) ने अपना प्रभुत्व आज के विदर्भ, बंगाल, उड़ीसा आन्ध्रप्रदेश तक स्थापित कर लिया था। युद्धभूमि में यद्यपि उनका बहुत समय व्यतीत हुआ, परन्तु निर्माण कार्य भी करवाये थे । तालाब खुदवाया, मन्दिरों का निर्माण करवाया। उसके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे – उसके नाम के सिक्के। ऐसा माना जाता है कि जाजल्लदेव विद्या और कला के प्रेमी थे, वे आध्यात्मिक थे। जाजल्लदेव के गुरु थे गोरखनाथ। गोरखनाथ के शिष्य परम्परा में भर्तृहरि और गोपीचन्द थे – जिनकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाती है।

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश के शासक : chhattisgarh Kalchuri Vansh Emperor List

छत्तीसगढ़ के इतिहास में कलचुरीयों का एक प्रमुख स्थान है, जिन्होंने मध्यकाल में प्रदेश को एक स्थिरता पूर्वक शासन देकर प्रदेश की समृद्धि के लिए शासन प्रशासन किया।

कलचुरी वंश मूलतः त्रिपुरी के कलचुरी थी जो कि प्रारंभ में रतनपुर के कलचुरी के नाम से शासित हुए और कालान्तर में इनकी द्वितीयक शाखा रायपुर कलचुरी के नाम से भी शासित हुए।

रतनपुर में कलचुरी राजवंश की लहुरी शाखा ने 10वीं शताब्दी में राज्य स्थापित किया जो 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कायम रहा रतनपुर में कलचुरी शासकों के राजत्व काल का विवरण इस प्रकार है।

कलचुरि वंश का शासकशासन काल
कलिंगराज 990 से 1020 ई.
कमलराज 1020 से 1045 ई.
रत्नराज प्रथम1045 से 1065 ई.
पृथ्वी देव -1 1045 से 1090ई.
जाजल्यदेव-1 1090 से 1120 ई.
रत्नदेव- 11 1120 से 1135 ई.
पृथ्वीदेव-II 1135 से 1165ई.
जाजल्यदेव-11 1165 से 1168 ई.
जगदेव 1168 से 1178 ई.
रत्नदेव- 111 1178 से 1198 ई.
प्रतापमल्ल 1198 से 1222 ई.
बहरेन्द्र साय1480 से 1544 ई.
कल्याणसाय 1544 से 1581 ई.
राजसिंह 1689 से 1712
सरदारसिंह 1712 से 1732 ई.
रघुनाथसिंह 1732 से 1743ई.

छत्तीसगढ़ में राजवंश का इतिहास : Kalchuri Vansh History in Hindi

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का इतिहास - Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh 2023

कलिंगराज (990 से 1020 ई.)

कलिंगराज छत्तीसगढ़ में कल्चुरियों के प्रथम शासक थे। इनका शासनकाल 1000 से 1020 ई. तक रहा। इन्होंने छत्तीसगढ़ के तुम्माण क्षेत्र में शासित बाणवंशीय शासकों को पराजित कर इस वंश की नींव रखी

तथा अपनी राजधानी तुम्माण को बनाया और यहीं से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को शासित करने लगा। कलिंगराज त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्लदेव – II के 18 पुत्रों में से एक था।

कमलराज (1020 से 1045 ई.)

कलिंगराज की मृत्यु के बाद इनका पुत्र कमलराज 1020 ई. में गदी पर आसीन हुआ। इन्होंने तुम्माण से ही सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को शासित किया तथा अपने शासन काल के दौरान किसी भी प्रकार के आमूलचूक परिवर्तन के बजाय सत्ता का यथावत संचालन किया

रत्नराज प्रथम (1045 से 1065 ई.)

1045 ई. में कमलराज की मृत्यु हो गई तदुपरान्त उसका पुत्र रत्नराज- इस साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। जाजल्यदेव-1 के रतनपुर शिलालेख में कमलराज के पुत्र का नाम रत्नराज मिलता है।

रतनपुर शाखा के कलचुरी शासकों में रत्नराज प्रथम काफी प्रसिद्धी प्राप्त शासक था, उसकी प्रसिद्धी राज्य के विस्तार के कारण नहीं अपितु उसके द्वारा किये गये स्थापत्य कला, तालाब निर्माण एवं कुशल प्रशासन इत्यादि कारणों से था।

रत्नराज-1 ने राजधानी तुम्माण से अपना शासन प्रशासन आरंभ किया किन्तु शीघ्र ही तुम्माण से 45 मील दूर रत्नपुर नामक एक नगर बसाया जिसे कालान्तर में उसने अपनी राजधानी बनाया।

उनके कुल देवी-देवताओं के मंदिरों का निर्माण भी करवाया जिसमें से एक सर्वचर्चित महामाया मंदिर भी है। उपरोक्त कार्यों से यह जानकारी मिलती है कि राजा रत्नराज-1 एक स्थापत्य प्रेमी शासक था।

रत्नराज-1 का शासन काल प्रजा हितैषी भी था, जिनका मानना था कि “प्रजा सुखम् तो राजा सुखम्” अर्थात् जब तक प्रजा की आर्थिक समृद्धि न हो जाए तब तक राज्य की आर्थिक समृद्धि नहीं हो सकती और

इसी भाव को चरितार्थ करने के लिए रत्नपुर क्षेत्र में अनेक तालाब खोदवाये और आस-पास का क्षेत्र, धन्य-धान्य से परिपूर्ण हो गया, इस कारण इसके शासन काल के दौरान रत्नपुर क्षेत्र को ‘कुबेरपुर’ की संज्ञा भी दी गई।

पृथ्वी देव -1 (1045 से 1090ई.)

रत्नराज-1 के देहावसान के बाद उनका पुत्र पृथ्वीदेव-1 को 1065 ई. में रतनपुर राज्य का अधिपति बना। उसके राज्यकाल के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले तीन अभिलेख आमोदा, रायपुर तथा लाफागढ़ से प्राप्त हुए हैं। जिसमें से आमोदा ताम्रपत्र अभिलेख से यह जानकारी प्राप्त होती है कि इसने 21 हजार ग्रामों को जीत लिया था।

इसमें सम्पूर्ण दक्षिण कोसल आ जाता है जिसके कारण पृथ्वीदेव-1 ने -सकलकोसलाधिपति की उपाधि धारण की थी। उसकी इस उपाधि से यह स्पष्ट होता है कि उसने सम्पूर्ण दक्षिण कोशल पर अपने प्रभुत्व की स्थापना की थी। इसी प्रकार राजधानी रतनपुर में विशाल सरोवर का भी निर्माण करवाया था।।

जाजल्यदेव-1 (1090 से 1120 ई.)

पृथ्वीराज-1 के पश्चात 1090 ई. में जाजल्यदेव -1 रतनपुर के शासक बने। उनके राजत्व काल की जानकारी रतनपुर के शिलालेख से प्राप्त होती है। इस अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि जाजल्यदेव -1 ने दण्डकारण्य क्षेत्र में शासित छिन्दक नागवंशीय शासक सोमेश्वरदेव को पराजित कर बंदी बनाकर रतनपुर ले आया था किन्तु सोमेश्वरदेव की माताश्री गुण्डमादेवी के अनुरोध पर उन्हें छोड़ दिया। इन बातों से यह पता चलता है कि यह शासक बाहुबली शासक होने के साथ स्त्रियों का सम्मान करने वाला शासक भी था।

इन्होंने त्रिपुरी की कलचुरी की अधीनता स्वीकार न करते हुए स्वयं के स्वर्ण सिक्के जारी किये। जिसमें उनका नाम गजशार्दुल नाम से उल्लेखित है। इन्होंने स्वयं के नाम पर एक नवीन शहर बसाया जिसे जाजल्यपुर नाम से जाना जाने लगा। जिसे वर्तमान में जांजगीर शहर के नाम से जाना जाता है। इस नगर में इन्होंने एक बड़ा तालाब, आम्रवन, पुष्पवाटिका तथा विशाल विष्णु मंदिर का निर्माण कराया। साथ ही, इन्होंने कोरबा के पाली में स्थित शिव मंदिर का जीर्णोद्धार भी कराया था। सन् 1120 ई. में जाजल्यदेव -1 की मृत्यु हो गई।

रत्नदेव- 11 (1120 से 1135 ई.)

जाजल्यदेव का पुत्र रत्नदेव-II 1120 ई. में गदी पर बैठा। रत्नदेव-II ने त्रिपुरी के राजा गयाकर्ण एवं कलिंग क्षेत्र के गंगवंशीय राजा अनंतवर्मन को परास्त किया था। राजा रत्नदेव-II के राजत्व काल में कला को राजाश्रय प्राप्त हुआ। उसने रतनपुर में अनेक मंदिर बनवाए तथा तालाब खुदवाए थे।

पृथ्वीदेव-II (1135 से 1165ई.)

रत्नदेव-II का पुत्र पृथ्वीदेव-II लगभग 1135 ई. में रतनपुर सिंहासन पर आसीन हुआ। इनके शासन काल के दौरान सेनापति जगपालदेव ने राजिम में स्थित राजीवलोचन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था कल्चुरियों का शासन क्षेत्र इसी शासक के समय सर्वाधिक विस्तृत था जिसकी जानकारी राजिम शिलालेख से होती है।

जाजल्यदेव-11 (1165 से 1168 ई.)

रत्नदेव- 11 का राज्यकाल अल्पकालीन रहा है। शिवरीनारायण से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि त्रिपुरी के कलचुरी शासक जयसिंह ने आक्रमण किया था। दोनों राजघरानों के मध्य शिवरीनारायण के समीप भीषण संघर्ष हुआ था इस संघर्ष में जयसिंह परास्त होकर वापस लौट गया था।

जगदेव (1168 से 1178 ई.)

सन् 1186 में जाजल्यदेव-II का आकस्मिक निधन हो गया। खरौद अभिलेख से ज्ञात होता है कि जाजल्यदेव के मृत्योपरान्त चारों तरफ अशान्ति व अव्यवस्था फैल गई थी।

इस समय उसका बड़ा भाई जगदेव गंग राज के साथ संघर्ष कर रहा था। जाजल्यदेव की मृत्यु अशान्ति व अव्यवस्था की सूचना से जगदेव को युद्ध बन्द कर रतनपुर लौटना पड़ा।

जगदेव ने रतनपुर राज्य का शासन अपने हाथों में लेकर शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की। उसने लगभग 10 वर्षो तक रतनपुर में शासन किया।

रत्नदेव- 111 (1178 से 1198 ई.)

जगदेव की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र रत्नदेव-III. 1178 में रतनपुर के राज सिंहासन का स्वामी बना। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर की दीवार पर जड़े शिलालेख से यह जानकारी मिलती है कि उसके शासन काल में भीषण दुर्भिक्ष से अव्यवस्था फैल गई थी।

इस संकटापन्न स्थिति में राजा रत्नदेव-III ने गंगाधर ब्राह्मण को अपना मंत्री बनाया जिसने सूझबूझ और योग्यता से राज्य को सुव्यवस्थित कर दिया था। सन् 1198 ई. में रत्नदेव तृतीय की मृत्यु हो गई।

प्रतापमल्ल (1198 से 1222 ई.)

रत्नदेव-III के मृत्योपरान्त उसका पुत्र प्रतापमल राज्य का उत्तराधिकारी बना। प्रतापमल ने अल्पायु में राज-काज, प्राप्त किया। उसका कार्यकाल 1198 ई. से 1225 ई. तक था।

इस शासक के पश्चात 200 वर्षों तक कलचुरीयों के संबंध में कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। जिसे अंधकार युग के भी नाम से जाना जाता है।

बहरेन्द्र साय (1480 से 1544 ई.)

अंधकार युग के बाद बहारेंन्द्र साय का प्रथम कलचुरी शासक के रूप में वर्णन मिलता है। इनके शासन काल के दौरान छुरी कोसगई को कलचुरीयों की राजधानी बनाई।

कल्याणसाय (1544 से 1581 ई.)

बाहरेन्द्र के पश्चात उसका पुत्र कल्याणसाय रतनपुर का राजा बना। बाबू रेवाराम की पाण्डुलिपि में कल्याणसाय – का उल्लेख किया गया है।

जिसमें यह कहा गया है कि कल्याणसाय और मण्डला के राजस्व अधिकारी के मध्य राजस्व संबंधी बातों को लेकर विवाद हो गया जिसके कारण तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने उसे अपने दरबार में बुला लिया और 8 वर्षों तक उसे अपने दरबार में रख कर राजस्व संबंधी प्रक्रिया को समझाया तत्पश्चात् उन्हें रतनपुर क्षेत्र वापिस भेज दिया।

किन्तु यह किस प्रमाण के आधार पर लिखा गया है, यह नहीं कहा जा सकता। वहीं दूसरी और छत्तीसगढ़ में प्रचलित गोपल्ला गीतों में कल्याण साय का दिल्ली जाना, जहांगीर के समय हुआ ऐसा बतलाया गया है जिसका वर्णन इस प्रकार है- बड़े राजा कल्याण साय, दिल्ली के सेवा जाय।

घुनी बैठे वाच्छाय (बादशाह) जेकर बेटा शाहजहान (शाहजहां) ।।

इसी प्रकार तुजुक -ए-जहांगीरी में भी कल्याण साय का जहांगीर के समय दिल्ली जाना उल्लेखित है।

लक्षमणसाय इन्होंने सत्ता का संचालन मात्र किया।

तखतसिंह – तखतसिंह ने तखतपुर शहर बसाया, वे साम्राज्य का विस्तार न करते हुए सत्ता का संचालन मात्र किया।

राजसिंह (1689 से 1712)

तखतसिंह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र राजसिंह शासक बना जिसका शासनकाल 1689 से 1712 ई. तक था। इसके दरबारी कवि गोपाल मिश्र जी थे जिन्होंने खूब तमाशा’ नामक पुस्तक की रचना की। जिसमें उन्होंने समकालीन मुगल बादशाह औरंगजेब की नीतियों की कटु आलोचना भी की है।

राजसिंह निःसंतान थे जिसके कारण उन्होंने रायपुर कलचुरी शाखा के मोहनसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की परन्तु कालक्रम में राजा राजसिंह की अचानक मृत्यु हो गई।

ठीक उसी समय मोहनसिंह शिकार पर गया हुआ था, जिसके कारण वह शीघ्र वापस नहीं आ सका। अंततः राजसिंह ने अपनी पगड़ी चाचा सरदारसिंह के सिर पर रखकर उसे राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया और मोहन सिंह जब रतनपुर पहुंचा तो सरदारसिंह को सिंहासन पर बैठा देख कर आगबबूला हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह शीघ्र वापस लौटकर सत्ता प्राप्त करेगा ।।

सरदारसिंह (1712 से 1732 ई.)

सरदार सिंह ने लगभग 20 वर्षो तक राज किया व केवल सत्ता का संचालन मात्र किया।

रघुनाथसिंह (1732 से 1743ई.)

सरदार सिंह निःसंतान था उसने मरणासन्न अवस्था में अपने 60 वर्षीय भाई रघुनाथसिंह को उत्तराधिकारी बनाया। सन् 1742 में मराठा सेनापति भास्करपंत ने रतनपुर पर आक्रमण कर दिया।

उसी समय पुत्र शोक से ग्रस्त रघुनाथसिंह आक्रमण का जवाब नहीं दे पाया। परिणामतः सहजता व सरलता से रतनपुर पर मराठों का कब्जा हो गया। सन् 1745 में रघुनाथसिंह की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् मराठों के द्वारा मोहनसिंह को प्रतिनिधि के रूप में 1758 तक गद्दी पर बैठाया गया।

रायपुर कलचुरी राजवंश

14वीं सदी के अंत में वीर सिंहदेव के शासनकाल के दौरान रतनपुर की कलचुरी शाखा का दो भागों में विभाजन हो गया। मुख्य शाखा रतनपुर में राज्य करती रही तथा दूसरी शाखा रायपुर क्षेत्र में स्थापित हो गई

और रायपुर को ही अपनी राजधानी बनाया परन्तु रायपुर कलचुरी की राजधानी शुरूआती दौर में खल्लवाटिका (खल्लारी) थी और कालान्तर में रामचन्द्रदेव द्वारा अपने पुत्र बह्मदेव के नाम पर रायपुर शहर बसाया गया। रामचन्द्रदेव ने अपनी राजधानी खल्लवाटिका के स्थान पर रायपुर को बनाया।

14वीं सदी के अंत में रतनपुर के राजा के एक रिश्तेदार लक्ष्मीदेव को प्रतिनिधि स्वरूप खल्लवाटिका भेजा गया और लक्ष्मीदेव वहीं का होकर रह गया। लक्ष्मीदेव के पुत्र सिंघणदेव ने अपने शत्रुओं से शिवनाथ नदी के दक्षिण में स्थित 18 गढ़ों को जीत लिया।

कालान्तर में उसने रतनपुर की प्रभुसत्ता मानने से इंकार कर दिया और उसने स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। सिंघणदेव के बाद उसका पुत्र रामचन्द्र (रायदेव) रायपुर का शासक बना। उसके बाद ब्रह्मदेव ने रायपुर की सत्ता संभाली। रायपुर के कलचुरी के अंतिम शासक अमरसिंहदेव थे (रायपुर गजेटियर के अनुसार)

(CG PSC के अनुसार रामचन्द्रदेव कलचुरी वंश के संस्थापक थे और इनके पुत्र बह्मदेव थे जिनके नाम पर उन्होंने खारून नदी के तट पर रायपुर शहर एवं महादेवघाट का निर्माण कराया साथ ही महादेव घाट के समीप

हटकेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना भी कराई)। (हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अनुसार, लक्ष्मीदेव को रायपुर कलचुरी के लहुरी शाखा का संस्थापक माना गया है)

इस शाखा के राजाओं ने रायपुर में अनेक तालाबों का निर्माण कराया. बूढ़ातालाब के समीप किला बनवाया।

दूधाधारी मंदिर क्षेत्र में तालाब एवं मंदिर बनवाये, खल्लारी में देवपाल नामक व्यक्ति द्वारा विष्णु मंदिर का निर्माण कराया गया तथा बलभद्र दास ने रायपुर के दुधाधारी मंदिर का निर्माण कराया। सन् 1741 ई. मराठों का छत्तीसगढ़ पर आक्रमण हुआ और 1758 ई. को छत्तीसगढ़ में कल्चुरियों की सत्ता समाप्त हो गई।

छत्तीसगढ़ में कलचुरी कालीन मंदिर स्थापना

रतनदेव के बारे में ये कहा जाता है कि वे एक नवीन राजधानी की स्थापना की जिसका नाम रतनपुर रखा गया और जो बाद में के नाम से जाना गया। रतनदेव भी बहुत ही हिंसात्मक युद्धों में समय नष्ट की, पर विद्या और कला के प्रेमी थे। इसलिए विद्वानों की कदर थी। रतनदेव ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और तालाब खुदवाया।

पृथ्वीदेव द्वितीय भी बड़े योद्धा थे। कला प्रेमी थे। उसके समय सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गये थे।

कलचुरीयों विद्वानों को प्रोत्साहन देकर उनका उत्साह बढ़ाया करते थे। राजशेखर जैसे विख्यात कवि उस समय थे। राजशेखर जी कि काव्य मीमांसा और कर्पूरमंजरी नाटक बहुत प्रसिद्ध हैं।

कलचुरीयों के समय में विद्वान कवियों को राजाश्रय प्राप्त था। इसीलिये शायद वे दिल खोलकर कुछ नहीं लिख सकते थे। राजा जो चाहते थे, वही लिखा जाता था।

कलचुरी शासको शैव धर्म को मानते थे। उनका कुल शिव-उपासक होने के कारण उनका ताम्रपत्र हमेशा “ओम नम: शिवाय” से आरम्भ होता है।

ऐसा कहा जाता है कलचुरीयों ने दूसरों के धर्म में कभी बाधा नहीं डाली, कभी हस्तक्षेप नहीं किया। बौद्ध धर्म का प्रसार उनके शासनकाल में हुआ था। Chhattisgarh Me Kalchuri Vansh Ka Itihas

कलचुरीयों ने अनेक मंदिरों धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।

वैष्णव धर्म का प्रचार, रामानन्द ने भारतवर्ष में किया जिसका प्रसार छत्तीसगढ़ में हुआ। बैरागी दल का गठन रामानन्द ने किया जिसका नारा था –

“जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई” –

हैदय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैदय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण कर हैदय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।

Kalchuri Vansh GK Question Answer in Hindi

  1. कलचुरी वंश का संस्थापक कौन था – कोक्कल
  2. कलचुरी वंश (kalchuri vansh) की राजधानी क्या थी – त्रिपुरी
  3. कलचुरी वंश का सबसे महान शासक कौन था – कर्णदेव
  4. कलिंग पर विजय प्राप्त करने के बाद कर्णदेव ने किसकी उपाधि धारण की – त्रिकलिंगाधिपति
  5. काव्यमीमांसा तथा विदशालभंजिका की रचना किस कलचुरी दरबार के कवि ने की – राजशेखर
  6. युवराज प्रथम किस धर्म का अनुयायी था – शैव धर्म
  7. जबलपुर का प्रसिद्ध ‘चौसठ योगिनी मन्दिर’ का निर्माण किस शासक के समय में हुआ था – युवराज प्रथम
  8. गांगेयदेव की पिता का नाम क्या था – कोक्कल द्वितीय
  9. स्वर्ण सिक्कों के विलुप्त हो जाने के पश्चात किस कलचुरी शासक ने सर्प्रथम इसे प्रारंभ करवाया – गांगेयदेव
  10. गांगेयदेव किस धर्म का अनुयायी था – शैव धर्म
  11. बनारस में कर्णमेरु नामक शैवमन्दिर किसने बनवाया था – कर्णदेव
  12. कलचुरी वंश (kalchuri vansh) का अंतिम शासक कौन था – विजय सिंह
  13. छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का संस्थापक कौन था? – कलिंगराज
  14. कलचुरी वंश की कुलदेवी कौन थी? – महामाया माई रायपुर
  15. छत्तीसगढ़ में अंतिम कलचुरी शासक कौन था? – रघुनाथसिंह
  16. छत्तीसगढ़ का पहला नाम क्या था? –  “दक्षिण कोशल” 
  17. कलचुरी वंश की राजधानी क्या थी? –  त्रिपुर
  18. रायपुर में रतनपुर के कलचुरी शाखा का प्रथम शासक कौन था? –  रतनदेव प्रथम

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