Best Poem On River In Hindi : इस कविता में कवि, नदी की प्रशंसा करते हुए यह बता रहे हैं कि किस प्रकार नदी मैदानी इलाकों में तेज वेग से बहती है और सारे कष्टों को सहती हुई अंत में सागर में समा जाती है और मानव जीवन के लिए वरदान साबित होती है । Poem on River in Hindi
नदी वह माध्यम है, जो कहीं ना कहीं हमारे अंदर होने वाली दुर्भावना और पाप को कम करने का कार्य करती है और इस प्रकार की कविताओं को भी हमारी हिंदी साहित्य में विशेष स्थान दिया गया है।
हम सभी को बचपन से ही नदी के महत्व के बारे में जानकारी दी जाती है साथ ही साथ नदी के विशेष तथ्यों को कविताओं में भी दर्शाया गया है जिनसे हम कुछ सीखते हुए भावी पीढ़ी को भी सिखा सकते हैं।
हमारे देश में हमने कई प्रकार की नदियां देखी हैं,जो अनवरत बहती रहती हैं और किसी से कोई शिकायत भी नहीं करती। आप सभी ने भी कभी ना कभी नदियों को देखा होगा और उनके बारे में जानकारी हासिल की होगी।
नदी के बहाव और कटाव के साथ ही जीवन का सबक सीखने को मिलता है, जहां हमारा जीवन भी उसी भाव और कटाव के साथ आगे बढ़ रहा है।
ऐसे में कई बार हमारे जीवन को नदी से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। नदियां आदि काल से मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती हैं क्योंकि जिस प्रकार नदी का पानी निरंतर बहता रहता है मनुष्य को भी विकट परिस्थितियों में ठहरने की बजाय आगे बढ़ते जाना चाहिए।
ऐसे में हमारी कविताओं में भी नदियों के बारे में विशेष उल्लेख किया गया है, जहां प्राचीन सभ्यता के बारे में भी जानकारी दी जाती है और साथ ही साथ वर्तमान समय के बारे में भी लोगों को जागरूक किया जाता है।
नदी पर कविता । Poem on River in Hindi

नदी निकलती पर्वत से
नदी निकलती पर्वत से,
मैदानों में बहती है |
और अंत में मिल सागर से,
एक कहानी कहती है |
बचपन में छोटी थी पर,
बड़े वेग से बहती थी|
आंधी तूफां, बाढ़ बवंडर,
सब कुछ हंस कर सहती थी |
मैदानों में आकर मैने,
सेवा का संकल्प लिया |
और बना जैसे भी मुझसे,
मानव का उपकार किया ||
डॉ० परशुराम शुक्ल
वो एक नदी है
हिमखंडों से पिघलकर,
पर्वतों में निकलकर,
खेत खलिहानों को सींचती,
कई शहरों से गुजरकर
अविरल बहती, आगे बढ़ती,
बस अपना गंतव्य तलाशती
मिल जाने मिट जाने,
खो देने को आतुर
वो एक नदी है।
बढ़ रही आबादी
विकसित होती विकास की आंधी
तोड़ पहाड़, पर्वतों को
ढूंढ रहे नई वादी,
गर्म होती निरंतर धरा,
पिघलते, सिकुड़ते हिमखंड
कह रहे मायूस हो,
शायद वो एक नदी है।
लुप्त होते पेड़ पौधे,
विलुप्त होती प्रजातियां,
खत्म होते संसाधन,
सूख रहीं वाटिकाएं
छोटे करते अपने आंगन,
गौरेया, पंछी सब गुम गए,
पेड़ों के पत्ते भी सूख गए
सूखी नदी का किनारा देख,
बच्चे पूछते नानी से,
क्या वो एक नदी थी।
नदी पर कविता । Poem on River in Hindi
यदि हमारे बस में होता,
नदी को उठाकर घर ले आते।
अपने घर के ठीक सामने,
उसको हम हर रोज बहाते।
कूद-कूद कर उछल-उछल कर,
हम मित्रों के साथ नहाते।
कभी तैरते कभी डूबते,
इतराते गाते मस्ताते।
‘नदी आई है’ आओ नहाने,
आमंत्रित सबको करवाते।
सभी उपस्थित भद्र जनों का,
नदिया से परिचय करवाते।
यदि हमारे मन में आता
झटपट नदी पार कर जाते।
खड़े-खड़े उस पार नदी के
मम्मी मम्मी हम चिल्लाते।
शाम ढले फिर नदी उठाकर
अपने कंधे पर रखवाते।
लाए जहां से थे हम उसको
जाकर उसे वहीं रख आते।
खड़े-खड़े उस पार नदी के
मम्मी मम्मी हम चिल्लाते।
शाम ढले फिर नदी उठाकर
अपने कंधे पर रखवाते।
लाए जहां से थे हम उसको
जाकर उसे वहीं रख आते।
नदी निकलती है पर्वत से,
नदी निकलती है पर्वत से,
मैदानों में बहती है।
और अंत में मिल सागर से,
एक कहानी कहती है।
बचपन में छोटी थी पर मैं,
बड़े वेग से बहती थी।
आँधी-तूफान, बाढ़-बवंडर,
सब कुछ हँसकर सहती थी।
मैदानों में आकर मैने,
सेवा का संकल्प लिया।
और बना जैसे भी मुझसे,
मानव का उपकार किया।
अंत समय में बचा शेष जो,
सागर को उपहार दिया।
सब कुछ अर्पित करके अपने,
जीवन को साकार किया।
बच्चों शिक्षा लेकर मुझसे,
मेरे जैसे हो जाओ।
सेवा और समर्पण से तुम,
जीवन बगिया महकाओ।
नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है
नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है
देख देख के अपने आप को शरमाती लाजियाती है।
खेल रही है वो पानी से और उससे पानी
ऐसा लगता है जलपरियों की कोई रानी
गोरे गोरे बदन से उसके निकल रहे हैं शोले
डोल रही है उसकी जवानी खाती है हिचकोले।
मस्त जवानी से नदिया के पानी को गरमाती है
नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है।
पानी उसके बदन को चूमे, चूम चूम कर झूमे
मछली की तरहा तैरे वह इधर उधर भी घूमे
नागिन की तरहा पानी की लहरों पे लहराए
पेड़ पे जैसे कोई डाली फूलों की बलखाए।
पानी ले ले कर हाथों में नदिया का उछ्लाती है
नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है।
भीगी साड़ी के पीछे से झाँक रहा है जोबन
सोच रही है देखे कोई आकर उसका यौवन
कोई मुझको अंग लगाए कोई मुझसे खेले
अंग अंग छुए वह मेरा और बाहों में ले ले।
तन को थिरकाती है अपने और मन को बहलाती है
नदी किनारे पानी में लड़की एक नहाती है।
-सतीश शुक्ला ‘रक़ीब’
“नदी की धारा”
कल कल करती नदी की धारा.
बही जा रही बढ़ी जा रही.
प्रगति पथ पर चढ़ी जा रही.
सबको जल ये दिये जा रही.
पथ न कोई रोक सके.
और न कोई टोक सके.
चट्टानों से टकराती है,
तूफानों से भीड़ जाती है.
रूकना इसे कब भाता है.
थकना इसे नहीं आता है.
सोद्देश्य स्व-पथ पर पल पल
बस आगे बढ़ती जाती है.
कल -कल करती जल की धारा.
जौहर अपना दिखलाती है.
Poems on Rivers in Hindi
नदी को बोलने दो,
शब्द स्वरों के खोलने दो।
उसकी नीरव निस्तब्धता,एक खतरे का संकेत है।
यह इस बात की पुष्टि है,
कि नदी हुई समाप्त,
शेष रह गई रेत है।
बहती हुई नदी,
जीवन का प्रमाण है,
राष्ट्र का है गौरव,
जीवंतता की पहचान है।
यह उर्वरता और जीवन प्रदान करती है,
खुद कष्ट सहकर दूसरों का कष्ट हरती है,
यह जीवनदायिनी है,
इसे अपने दुष्कर्मों,से न भयभीत करो,
यह नीर नहीं संचती है,
इसे नाले में न तब्दील करो
तुम्हारे पाप को ढोते-ढोते वह कुछ थक-सी गई है
ऐसा लग रहा है
कि वह कुछ सहम-सिमट सी गई है।
छोटी-सी हमारी नदी
छोटी-सी हमारी नदी टेढ़ी-मेढ़ी धार,
गर्मियों में घुटने भर भिगो कर जाते पार।
पार जाते ढोर-डंगर, बैलगाड़ी चालू,
ऊँचे हैं किनारे इसके, पाट इसका ढालू।
पेटे में झकाझक बालू कीचड़ का न नाम,
काँस फूले एक पार उजले जैसे घाम।
दिन भर किचपिच-किचपिच करती मैना डार-डार,
रातों को हुआँ-हुआँ कर उठते सियार।
अमराई दूजे किनारे और ताड़-वन,
छाँहों-छाँहों बाम्हन टोला बसा है सघन।
कच्चे-बच्चे धार-कछारों पर उछल नहा लें,
गमछों-गमछों पानी भर-भर अंग-अंग पर ढालें।
कभी-कभी वे साँझ-सकारे निबटा कर नहाना
छोटी-छोटी मछली मारें आँचल का कर छाना।
बहुएँ लोटे-थाल माँजती रगड़-रगड़ कर रेती,
कपड़े धोतीं, घर के कामों के लिए चल देतीं।
जैसे ही आषाढ़ बरसता, भर नदिया उतराती,
मतवाली-सी छूटी चलती तेज धार दन्नाती।
वेग और कलकल के मारे उठता है कोलाहल,
गँदले जल में घिरनी-भँवरी भँवराती है चंचल।
दोनों पारों के वन-वन में मच जाता है रोला,
वर्षा के उत्सव में सारा जग उठता है टोला।
-रवींद्रनाथ ठाकुर
क्यों नदियाँ चुप हैं
जब सारा जल
ज़हर हो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
जब यमुना का
अर्थ खो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
चट्टानों से लड़-लड़कर जो
बढ़ती रही नदी,
हर बंजर की प्यास बुझाती
बहती रही नदी!
जब प्यासा
हर घाट रो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
ज्यों-ज्यों शहर अमीर हो रहे
नदियाँ हुईं गरीब
जाएँ कहाँ मछलियाँ प्यासी
फेंके जाल नसीब?
जब गंगाजल
गटर ढो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
कैसा ज़ुल्म किया दादी-सी
नदियाँ सूख गई?
बेटों की घातों से गंगामैया
रूठ गईं।
जब मांझी ही
रेत बो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
-राधेश्याम बन्धु
नदी की धारा
कल कल करती नदी की धारा,
बही जा रही बढ़ी जा रही।
प्रगति पथ पर चढ़ी जा रही,
सबको जल ये दिये जा रही।
पथ न कोई रोक सके,
और न कोई टोक सके।
चट्टानों से टकराती है,
तूफानों से भीड़ जाती है।
रूकना इसे कब भाता है,
थकना इसे नहीं आता है।
सोद्देश्य स्व-पथ पर पल पल,
बस आगे बढ़ती जाती है।
कल -कल करती जल की धारा,
जौहर अपना दिखलाती है।
Best Poem on River in Hindi
मैं नदी हूं
हिमालय की गोद से बहती हूं
तोड़कर पहाड़ों को अपने साहस से
सरल भाव से बहती हूं।
लेकर चलती हूं मैं सबको साथ
चाहे कंकड़ हो चाहे झाड़
बंजर को भी उपजाऊ बना दू
ऐसी हूं मैं नदी।
बिछड़ों को मैं मिलाती
प्यासे की प्यास में बुझाती
कल-कल करके में बहती
सुर ताल लगाकर संगीत बजाती।
कहीं पर गहरी तो कहीं पर उथली हो जाती
ना कोई रोक पाया ना कोई टोक पाया
मैं तो अपने मन से अविरल बहती
मैं नदी हूं।
मैं नदी हूं
सब सहती चाहे आंधी हो या तूफान
चाहे शीत और चाहे गर्मी
कभी ना रूकती, कभी ना थकती
मैं नदी सारे जहां में बहती।
– नरेंद्र वर्मा
“छोटी-सी हमारी नदी”
छोटी-सी हमारी नदी टेढ़ी-मेढ़ी धार,
गर्मियों में घुटने भर भिगो कर जाते पार।
पार जाते ढोर-डंगर, बैलगाड़ी चालू,
ऊँचे हैं किनारे इसके, पाट इसका ढालू।
पेटे में झकाझक बालू कीचड़ का न नाम,
काँस फूले एक पार उजले जैसे घाम।
दिन भर किचपिच-किचपिच करती मैना डार-डार,
रातों को हुआँ-हुआँ कर उठते सियार।
अमराई दूजे किनारे और ताड़-वन,
छाँहों-छाँहों बाम्हन टोला बसा है सघन।
कच्चे-बच्चे धार-कछारों पर उछल नहा लें,
गमछों-गमछों पानी भर-भर अंग-अंग पर ढालें।
कभी-कभी वे साँझ-सकारे निबटा कर नहाना
छोटी-छोटी मछली मारें आँचल का कर छाना।
बहुएँ लोटे-थाल माँजती रगड़-रगड़ कर रेती,
कपड़े धोतीं, घर के कामों के लिए चल देतीं।
जैसे ही आषाढ़ बरसता, भर नदिया उतराती,
मतवाली-सी छूटी चलती तेज धार दन्नाती।
वेग और कलकल के मारे उठता है कोलाहल,
गँदले जल में घिरनी-भँवरी भँवराती है चंचल।
दोनों पारों के वन-वन में मच जाता है रोला,
वर्षा के उत्सव में सारा जग उठता है टोला।
~ रवींद्रनाथ ठाकुर
Nadi Par Kavita
नील नभ का नीर
जब नदी में जाकर मिल गया
नदी का तो रंग ही
उस नीर रंग से खिल गया।
अब रवि भी ढक गया
जलद की चादर में
व्योम भी अब झुक गया
सरिता की आदर में।
धड़कने भी धरा की
सहसा ही बढ़ गई
नवजीवन जागा धरा में
खुशियां अपार उमड़ पड़ी।
अपनी धार में धरा के
कणों को बहाने लगी
अब हवाओं में सरिता
प्रेम रस मिलाने लगी।
मस्ती से मजे में वो तटनि
पत्थरों से टकराती गई
अपने आंचल को खुशी से
सागर तक लहराते गई।
आगे बहते बहते कई
मित्रों से मुलाकात हुई
अकस्मात ही चंद्र सहित
तारक से भी बात हुई।
मुश्किलें आई हजार
पर नदियां कभी न ये रुकी
लोग आए हजार
पर नदियां कभी न ये रुकी।
– अज्ञात
गंगा की बात क्या करूं
गंगा की बात क्या करूं, गंगा उदास है,
वह झूम रही है खुद से और बदहवास है
ना अब वो रंग रूप है, ना वो मिठास है,
गंगाजली का जल नहीं, अब गंगा के पास है।
बांधों के जाल में कहीं, नहरो के जाल में,
सिर पीट-पीट रो रही, शहरों के जाल में
नाले सता रहे है, पतनाले सता रहे है
खा खा के पान थूकने वाले सता रहे है।
असहाय है, लाचार है, मजबूर है गंगा,
अब हैसियत से अपनी, बहुत दूर है गंगा
आई थी बड़े शौक से, ये घर को छोड़कर,
विष्णु को छोड़कर, के शंकर को छोड़कर।
खोई भी अपने आप में वो कैसी घड़ी थी,
सुनते ही भगीरथी की तरफ दौड़ पड़ी थी
गंगा की क्या बात करूं, गंगा उदास है
वो जूझ रही खुद से और बदहवास है।
मुक्ति का है द्वार, हमेशा खुला है,
काशी गवाह है कि, यहां सत्य तुला है
केवल नदी नहीं है, संस्कार है गंगा
धर्म जाति देश का श्रृंगार है गंगा।
गंगा की क्या बात करूं, गंगा उदास है
जो कुछ भी आज हो रहा है गंगा के साथ है
क्या आप को पता नहीं कि किसका हाथ है
देखे तो आज क्या हुआ गंगा का हाल है।
रहना मुहाल है इसका, जीना मुहाल है
गंगा के पास दर्द है, आवाज नहीं है
मुँह खोलने का कुल में रिवाज नहीं है
गंगा नहीं रहेगी यही हाल रहा तो।
कब तक यहां बहेगी यही हाल रहा तो
कुछ कीजिए उपाय, प्रदूषण भगाइए,
गंगा पर आँच आ रही है
गंगा बचाइये, गंगा बचाइये!!
– अज्ञात
नदी ओ नदी
नदी ओ नदी
नदी ओ नदी कहां बढ़ चली
जरा तो ठहर पहर दो पहर
नदी ओ नदी कहां बढ़ चली।
क्यों है इतनी तू बेसबर
जरा तो ठहर पहर दो पहर
कोई फूल-बूटा तो हरित हो सके
कोई जीव जरा तो तृप्त हो सके।
जानते है तुझे जाकर मिलना है सागर से
कुछ जल भर तो ले कोई एक गागर से
जा के मिली तुम सागर से मतवाली
उसी में समाकर जीवन गुजारो।
अब जानते हैं नदी हो नदी तुम
मिल कर सागर से सागर ही कहलाओ।
– कविता वर्मा
“वो एक नदी है।“
हिमखंडों से पिघलकर,
पर्वतों में निकलकर ,
खेत खलिहानों को सींचती ,
कई शहरों से गुजरकर
अविरल बहती , आगे बढ़ती,
बस अपना गंतव्य तलाशती
मिल जाने मिट जाने,
खो देने को आतुर
वो एक नदी है।
बढ़ रही आबादी
विकसित होती विकास की आंधी
तोड़ पहाड़, पर्वतों को
ढूंढ रहे नई वादी,
गर्म होती निरंतर धरा,
पिघलते , सिकुड़ते हिमखंड
कह रहे मायूस हो,
शायद वो एक नदी है।
लुप्त होते पेड़ पौधे,
विलुप्त होती प्रजातियां,
खत्म होते संसाधन,
सूख रहीं वाटिकाएं
छोटे करते अपने आंगन,
गौरेया, पंछी सब गुम गए,
पेड़ों के पत्ते भी सूख गए
सूखी नदी का किनारा देख,
बच्चे पूछते नानी से,
क्या वो एक नदी थी।
~ आरती लोहनी
“नदी”Poem on River
नदी निकलती है पर्वत से,
मैदानों में बहती है.
और अंत में मिल सागर से,
एक कहानी कहती है.
बचपन में छोटी थी पर मैं,
बड़े वेग से बहती थी.
आँधी-तूफान, बाढ़-बवंडर,
सब कुछ हँसकर सहती थी.
मैदानों में आकर मैने,
सेवा का संकल्प लिया.
और बना जैसे भी मुझसे,
मानव का उपकार किया.
अंत समय में बचा शेष जो,
सागर को उपहार दिया.
सब कुछ अर्पित करके अपने,
जीवन को साकार किया.
बच्चों शिक्षा लेकर मुझसे,
मेरे जैसे हो जाओ.
सेवा और समर्पण से तुम,
जीवन बगिया महकाओ.
~ डॉ. परशुराम शुक्ल
नदी के किनारों पर ( Poem on River in Hindi )
नदी के किनारों पर,
खड़ी है वो रवानी,
धीमे धीमे बहती हुई,
सदा बदलती रानी।
जब सूरज ने चारों ओर,
बिखेरा अपना नुकसान,
नदी ने भी अपनी बहुमुखी,
चारों ओर फैलाई अपनी जवानी।
जब हवा ने अपने रुख,
बदले बहार का तोहफा,
नदी ने भी अपनी रवानी,
सजा दी फूलों से बहराफ़ा।
अगले पल जब तू नदी के किनारे आयेगा,
बस ठहर जायेगा तू उसके पास,
उसकी रवानी तेरी आँखों में बस जाएगी,
और तू भी उसके साथ बह जायेगा किसी अन्जान जगह।
नदी की रवानी और सौंदर्य के साथ,
हमारे जीवन को सजाती रहेगी नवीन रूप में,
और हम सदा नदी के साथ,
खुशी और प्रीति से गुज़रेंगे हर मौसम में।
नदी बहती है, सहारा देती है,
नदी बहती है, सहारा देती है,
खुशियों की लहरें लेकर आती है,
कभी उफान पैदा करती है,
कभी तंगदिल को तर देती है।
नदी के किनारे, हरा भरा पेड़,
फूलों से सजा हुआ नजारा लेकर
दिल को सुकून देता है,
जो समय वहाँ बिताता है।
नदी के तीर पर, सुबह की धुप में,
चिड़ियों की चहचाहट में,
प्रकृति की खुशबू में,
मन हमेशा खोया रहता है।
नदी बहती है, सदा चलती रहती है,
हर वक्त नयी रचना बनाती है,
हमारे जीवन में प्रकृति का खूबसूरत अंश होती है,
जो हमें सदा खुशी की आस देती है।
Best Nadi Par Kavita
हिम खंडों से पिघलकर, पर्वतों में निकलकर,
खेत खलिहानों को सींचती, कई शहरों से गुजरकर
अविरल बहती, आगे बढ़ती, बस अपना गंतव्य तलाशती
मिल जाने मिट जाने, खो देने को आतुर
वो एक नदी है। बढ़ रही आबादी
विकसित होती विकास की आंधी तोड़ पहाड़, पर्वतों को
ढूंढ रहे नई वादी, गर्म होती निरंतर धरा,
पिघलते, सिकुड़ते हिम खंड कह रहे मायूस हो,
शायद वो एक नदी है। लुप्त होते पेड़ पौधे,
विलुप्त होती प्रजातियां, खत्म होते संसाधन,
सूख रहीं वाटिकाएं छोटे करते अपने आंगन,
गौरेया, पंछी सब गुम गए, पेड़ों के पत्ते भी सूख गए
सूखी नदी का किनारा देख, बच्चे पूछते नानी से,
क्या वो एक नदी थी।
यमुना नदी पर कविता
जब सारा जल
ज़हर हो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
जब यमुना का
अर्थ खो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
चट्टानों से लड़-लड़कर जो
बढ़ती रही नदी,
हर बंजर की प्यास बुझाती
बहती रही नदी!
जब प्यासा
हर घाट रो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
ज्यों-ज्यों शहर अमीर हो रहे
नदियाँ हुईं गरीब
जाएँ कहाँ मछलियाँ प्यासी
फेंके जाल नसीब?
जब गंगाजल
गटर ढो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
कैसा ज़ुल्म किया दादी-सी
नदियाँ सूख गई?
बेटों की घातों से गंगामैया
रूठ गईं।
जब मांझी ही
रेत बो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
-राधेश्याम बन्धु
हिंदी कविता नदी पर । Nadi Par Kavita
आज कुछ पानी है नदी में.. कभी बहती थी… ..
कल-कल, झर-झर… वेगवती-सी…
झूमती-नाचती….. अल्हड़ युवती सी…
पर आज, कुछ चुप-सी हो गयी है..
न जाने किन गमो में खो गयी है
लगता है… बादल नाराज़ हो गए हैं इससे..
ना ही बरसते हैं अब… ना ही गरजते हैं अब ..
अपना सूना आँचल फैलाए…. किसी के इंतज़ार में बैठी है ..
आज कुछ नमी है, इसकी आँखों में…
आज कुछ पानी है नदी में…
लेकिन धरा को हरा-भरा करने की चाहत
आज भी इसके.. मन में उमड़ती है…
आज भी ये लाखों-करोड़ों को, जीवन देने को तरसती है…
पर अपनों के हाथों ही…. सूखी पड़ गयी है ये…
अब किनारे भी … दूर हो गए हैं इससे….
किससे अपना दर्द कहे… यही विचारती है मन में….
हाँ, आज ‘कुछ’ पानी है नदी में..
– मीनाक्षी मोहन ‘मीता’
Poem On River Ganga In Hindi – गंगा नदी पर कविता
अविरल, कोमल, चंचल, निर्मल !
गंगा का यह पावन जल,
थोड़ा चंचल ,थोड़ा शीतल,
गंगा का यह पावन जल,
जो दरिया मिल जाए इसमें,
वह भी गंगा का पावन जल,
कभी न शांत हो,
हवा जब शांत हो,
चले यह हर पल!,
गंगा का यह पावन जल,
जब कोई स्नान करे,
जाए यह तब उछल- उछल,
गंगा का यह पावन जल,
काशी की ‘गरिमा’,
शिव की ‘महिमा’,
है गंगा का पावन जल,
देश- देश से आये वासी,
देखने गंगा का पावन जल,
धन्य हुए है काशीवासी,
पाकर यह गंगा का पावन जल,
अविरल, कोमल, चंचल, निर्मल,
गंगा का यह पावन जल!
– अरुण जैसल
नदियों की वो रानी थी
नदियों की वो रानी थी,
उसमें खूब रवानी थी,
उसकी एक कहानी थी,
एक नदी थी, मेरे शहर की,
जहाँ जहाँ वो जाती थी,
धरा वहाँ चिलकाती थी,
हरी-भरी लहराती थी,
एक नदी थी, मेरे शहर की,
अब खूब गिरे गंदला काला,
शासन के मुंह पर ताला,
एक नदी थी मेरे शहर की,
आज बनी गंदा नाला,
नदी पर छोटी सी कविता
नदी निकलती पर्वत से,
मैदानों में बहती है |
और अंत में मिल सागर से,
एक कहानी कहती है |
बचपन में छोटी थी पर,
बड़े वेग से बहती थी|
आंधी तूफां, बाढ़ बवंडर,
सब कुछ हंस कर सहती थी |
मैदानों में आकर मैने,
सेवा का संकल्प लिया |
और बना जैसे भी मुझसे,
मानव का उपकार किया ||
– डॉ० परशुराम शुक्ल
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