छत्तीसगढ़ी कविता : संगवारी हो आज हम एक बहुत ही पुरानी छत्तीसगढ़ी कविता पेश करने जा रहे है. जो मुख्या रूप से भिलाई स्टील प्लांट पर है. जिसे बहुत सुन्दर व्यक्त किया गया है. भेलाई के धमन भट्ठी छत्तीसगढ़ी कविता जिसके रचनाकार है डॉ. बल्देव जी है.
भेलाई के धमन भट्ठी छत्तीसगढ़ी कविता
अकास ल छेद के कुतुब मीनार कस ठाढ़े हे
कहूं गुलाबी, कहूं लिहूं कहूं पिंवरा धुंवा उगलत हे
चिमनी मन आवत हे, जावत हे, ढुलत हे, ढुकत हे
पूरब ले पश्चिम ले उत्तर ले दक्खिन ले
मनखेच मनखे एही ठउर भारत ल भारत बनावत हे
कहूं सोय सोय कहं फोय फाय कहूं छुरछुरी कहूं फुलझड़ी
कहूं आगी के झरना ठाढ़ गिरत हे
पानी मं कहूँ आगी के खंभा मन ढुलत हे
भागत हे लामत हे,
उछल के गिरत हे नाली मं कहूं कौंधत हे तड़ित लता
कहूं पसरत हे लावा हर का होही का पता
उप्पर म कई ठन खटोला आवत है जावत हे।
वोही म बइठे मनसे आगी के गोला संग खेलत हे
जइसन चाहत है नचात हे बेलत है
झांपी कस पंखा मन घोरियात हे
बांच के चलिहा उप्पर ले तरी ले जादा झन देखिहा
भट्टी ल नानेंच कन छेदा ले आंखी तिरा नाही तरी ले
कतका गुन भराय हे नंदिनी राजहरा बैलडीला के माटी म
गाड़ी के चक्का कस गोल गोल सुरुज मन ढलत हैं.
धमन भट्टी म
जेमन कचलोहिया निकाल के लानत है
गलावत हें ढारत हे ते मन कइसन होही का घात के बने होही
मनखे होही के नइ होही अइसने सनसनात कहूं
छुर छुरी कहूं फुलझड़ी कहूं झर्र झर्र ले उप्पर कहूं
सरसर ले नीचे झरै फुलझड़ी कहूं छत के दीवार ले ओरमत हे
जगमगात फूलन के लरी बरत-बुझावत कहूं
झालर कहूं झूल रंग रंग के लड़ी,
फूलझड़ी कहूं सुभलाभ लिखाय,
कहूं स्वास्तिक कहूं हांथी कहूं
कमल कहूं अटारी कहूं
महल झलकात हे अगिन जोत लड़ी नदी तलाब म
अउ उबक जाय
जगमगात खंभा नीला-पीला कहूं हरा
कहूं लाल कहूं दुबक जाय
लहरा मां कहूं दुबक जाय दहरा मा.